Munshi Premchand

Google को बहुत धन्यवाद मुंशीजी को एक Doodle समर्पित करने के लिए



मुंशी जी के बारे में जितना कहा जाय उतना कम है, जो कोई भी थोड़ी बहुत हिंदी साहित्य में रूचि रखता है उसके लिए मुंशी प्रेमचंद का नाम ही उनका परिचय है। उनकी लेखनी के बारे में तो कइयों ने कहा है और मैं इतनी काबिलियत भी नहीं रखता कि उस विषय में कुछ कह सकूँ। यहाँ मैं उनकी जिंदगी के एक अलग पहलू के बारे में अपनी बात रखना चाहता हूँ जो मुझे पिछले कुछ दिनों में उनके बारे में पढ़ने के बाद पता चली। 

इस आदमी की जिंदगी में संघर्ष तो था ही जो की उन्नीसवी सदी के लगभग सभी महानायकों के जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा जैसा लगता है, पर जो बात मुझे उनके बारे में बहुत उत्सुक करती है वो यह है कि उन्होंने अपना अधिकांश काम एक ऐसे सामान्य आदमी की तरह रहते हुए किया है जिसकी जिंदगी में एक रोजमर्रा की नौकरी है जो उसे अपना घर चलाने के लिए करनी है, घर पहुँच के रोज रोज की कहा सुनी भी है और मन के अंदर एक कशमकश भी है इस रोज की जिंदगी को छोड़ कर कुछ अलग किया जाये।

उन्होंने अपनी ज्यादातर कहानियां और उपन्यास इन्ही सब के बीच में लिखे हैं, यह बात मुझे बहुत प्रेरणा दायक लगती है। शायद ये उनका एक तरीका था एक आम आदमी की जद्दोजहद और थकान को ऐसा रूप देने का जो सदियों तक लोगों के मन में बस जाये, लोग उससे प्रेरणा लेते रहें और कहानियों में ही सही पर एक आम आदमी नायक बन सके। जटिल से जटिल चीजें कितनी सरलता से कही जा सकती है ये हमें उनकी कहानियों से पता चलता है। अपने नौकरीपेशा दोस्तों के लिए उनकी कहानियों में से ही एक पंक्ति पेश करना चाहता हूँ जो इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है 

"वेतन तो पूरनमासी के चाँद की तरह होता है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते धीरे धीरे लुप्त हो जाता  है" :)